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प्र॒त्नो हि क॒मीड्यो॑ अध्व॒रेषु॑ स॒नाच्च॒ होता॒ नव्य॑श्च॒ सत्सि॑ । स्वां चा॑ग्ने त॒न्वं॑ पि॒प्रय॑स्वा॒स्मभ्यं॑ च॒ सौभ॑ग॒मा य॑जस्व ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pratno hi kam īḍyo adhvareṣu sanāc ca hotā navyaś ca satsi | svāṁ cāgne tanvam piprayasvāsmabhyaṁ ca saubhagam ā yajasva ||

पद पाठ

प्र॒त्नः । हि । क॒म् । ईड्यः॑ । अ॒ध्व॒रेषु॑ । स॒नात् । च॒ । होता॑ । नव्यः॑ । च॒ । सत्सि॑ । स्वाम् । च॒ । अ॒ग्ने॒ । त॒न्व॑म् । पि॒प्रय॑स्व । अ॒स्मभ्य॑म् । च॒ । सौभ॑गम् । आ । य॒ज॒स्व॒ ॥ ८.११.१०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:11» मन्त्र:10 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:36» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:10


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शिव शंकर शर्मा

अग्निवाच्य ईश्वर की प्रार्थना।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे परमदेव ! (हि) जिस हेतु तू सबसे (प्रजः) पुराना है (अध्वरेषु) यज्ञों में (कम्+ईड्यः) सुखपूर्वक स्तुत्य है (च) और (सनात्) सनातन (होता) परमदाता और (नव्यः) प्रणम्य है। हे भगवन् ! (सत्सि) हमारे हृदय में बैठ और बैठकर (स्वाम्) स्वकीय (तन्वम्) संसाररूप शरीर को (पिप्रयस्व) प्रसन्न कर=धनादिकों से पूरित कर (च) और (अस्मभ्यम्) हमको (सौभगत्वम्) सौन्दर्य (आ+यजस्व) दे ॥१०॥
भावार्थभाषाः - सर्व शुभ कार्यों में परमात्मा ही पूज्य, गेय और ध्येय है ॥१०॥
टिप्पणी: यह अष्टम मण्डल का ग्यारहवाँ सूक्त और छत्तीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे परमात्मन् ! (प्रत्नः) आप पुरातन हैं (हि) इसी से (ईड्यः) सबके स्तुतियोग्य (सनात्, च, होता) शाश्वतिक हवनप्रयोजक (नव्यः, च) नित्यनूतन और (अध्वरेषु, सत्सि) हिंसारहित यज्ञों में विराजमान होते हैं (स्वाम्, तन्वम्, च) ब्रह्माण्डरूपी स्वशरीर को (पिप्रयस्व) पुष्ट करें (अस्मभ्यम्, च) और हम लोगों के अर्थ (सौभगम्, आयजस्व) सौभाग्य प्राप्त कराएँ। “कम्” पूरणार्थक है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप पुरातन होने से सबके उपासनीय हैं। कृपा करके हमारी शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति में सहायक हों, जिससे हम लोग बलवान् होकर मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय को प्राप्त हों और एकमात्र आप ही की उपासना तथा आप ही की आज्ञापालन करते हुए सौभाग्यशाली हों, यह हमारी आपसे विनयपूर्वक प्रार्थना है। मन्त्र में “कम्” पद पादपूरणार्थ आया है ॥१०॥तात्पर्य्य यह है कि इस सूक्त में परोपकार का उपदेश करते हुए एकमात्र परमात्मा की ही उपासना का वर्णन किया गया है अर्थात् परमात्मा की अनन्योपासना में हेतु दर्शाकर यह वर्णन किया है कि वह परमात्मा “प्रत्न”=अनादि तथा “नव्य”=नित्य अजर होने से हिंसारहित यज्ञों का सर्वदा सहायक है और यज्ञ का अर्थ परोपकार करना है। ब्रह्माण्ड के पालन की प्रार्थना का उपदेश इसलिये आया है कि प्रत्येक उपासक प्राणिमात्र का हित चाहता हुआ अपने हित की इच्छा करे, क्योंकि परोपकारी पुरुष ही को अभ्युदय प्राप्त होता और वही निःश्रेयस का अधिकारी होता है, यह वेद का अटल सिद्धान्त है।इस अष्टमाध्याय के उपसंहार में यह वर्णन किया है कि उपासक लोग यज्ञों द्वारा परोपकार में प्रवृत्त रहकर उक्त गुणविशिष्ट एकमात्र परमात्मा की ही उपासना करें अर्थात् अनित्य, नश्वर आदि भावोंवाले साधारण जनों को छोड़कर नित्य पवित्र, अजर, अमर, अभय, सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के पालक, पोषक तथा रक्षक परमात्मा ही की उपासना में प्रवृत्त रहें, जैसा कि “माचिदन्यद्विशंसत” ऋग्० ८।१।१=हे सबके मित्र=परोपकारप्रिय उपासको ! तुम परमात्मा से भिन्न अन्य किसी की उपासना मत करो, क्योंकि अन्य की उपासना से पुरुष आत्महिंसक होता है और इसी भाव को “मम त्वा सूर उदिते” ऋग्० ८।१।२९=हे परमात्मन् ! मैं सर्वदा सब कालों में आप ही की स्तुति में प्रवृत्त रहूँ अर्थात् आप ही की उपासना करूँ, “त्वामिच्छवसस्पते कण्वा उक्थेन वावृधुः” ऋग्० ८।६।२१=हे सब बलों के आधार परमात्मन् ! विद्वान् पुरुष स्तुतियों द्वारा आप ही के यश को बढ़ाते अर्थात् आप ही की उपासना में प्रवृत्त रहते हैं, सो हे प्रभो ! आप हमको बल दें कि हम लोग आप ही की उपासना तथा आप ही की आज्ञापालन करते हुए मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय को प्राप्त हों ॥
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शिव शंकर शर्मा

अग्निवाच्येश्वरप्रार्थना।

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमदेव ! हि=यतस्त्वम्। प्रत्नोऽसि=पुराणोऽसि। कमिति पूरकः। अध्वरेषु=यज्ञेषु। त्वमेव। ईड्यः=स्तुत्यः। पुनः। सनात्सनातनोऽसि। च पुनः। होता=परमदातासि। नव्यः=नवनीयः प्रणम्यः। हे भगवन् अग्ने ! त्वमस्माकं हृदये। सत्सि=निषीद। निषद्य च। स्वाम्=स्वकीयाम्। तन्वम्=संसारलक्षणं शरीरम्। पिप्रयस्व=प्रसादय=धनादिभिः प्रपूरय। अस्मभ्यञ्च। सौभगम्=सुभगत्वं सौन्दर्यञ्च। आयजस्व=देहि ॥१०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे परमात्मन् ! (प्रत्नः) पुरातनः (हि) अतः (ईड्यः) स्तुत्यः (सनात्, च, होता) शाश्वतिको होता (नव्यः, च) नित्यनूतनश्च (अध्वरेषु, सत्सि) यज्ञेषु निषीदसि (स्वाम्, तन्वम्, च) स्वब्रह्माण्डरूपं शरीरं च (पिप्रयस्व) पोषय (अस्मभ्यम्, च) अस्मदर्थं च (सौभगम्, आयजस्व) सौभाग्यं समन्ताद्देहि। “कमिति पूरणः” ॥१०॥ इति श्रीमदार्य्यमुनिनोपनिबद्धे ऋक्संहिताभाष्ये अष्टममण्डले पञ्चमाष्टके अष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥